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लालू पर क़ानूनी वार, लटकी गठबंधन पे तलवार !

हमसब की बात
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जिसने कभी उलटी धारा में नांव तैराया, जो कभी ग़रीबों का सहारा बना, जिसने पिछड़ों को आगे आना सिखाया, जिसने समाज की नई परिभाषा बुन दी, जिसने सदा जी हुज़ूरी करने वालों को ख़ुद हुज़ूर बना दिया। उसकी हम भले ही कितनी भी आलोचना कर लें, मगर एक बात तो रही उस शख्स में, उसने कभी भी किसी भी परिस्थिति में सांप्रदायिक पार्टी के आगे सर नहीं झुकाया। उसने ख़ुद को कमज़ोर होना बर्दाश्त किया, मगर किसी वैसी ताक़त का सहारा न बना और न लिया, जो ताक़तें समाज को धर्म के नाम पे लड़ाती रही हैं।

10 मार्च 1990 को लालू प्रसाद यादव ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके साथ ही बिहार में राजनीति की नई परिभाषा का आग़ाज़ हुआ। अगड़े राजनीति में पीछे ढकेल दिए गए, और वो लोग आगे आने शुरू हुए, जो उस दौर में कुर्सियों पर बैठने से हिचकिचाते थे। जो तब भी बाबू लोगों के यहां फ़र्श की ही शोभा बना करते थे। तब फ़र्श को अर्श की राजनीति सिखाया लालू प्रसाद यादव नें।

भागलपुर दंगे ने बिहार में कांग्रेस को लील लिया। और लालू ने बिहार से दंगे के वजूद को लगभग मिटा ही दिया।

अपने कार्यकाल में लालू ने ग़लती की, विकास को भूल गए। शिक्षा को दर किनार कर दिया। अस्पताल को खिलवाड़ बना दिया। साथ ही सूबे में अपराधियों की तूती बोलने लगी। विधी व्यवस्था का कबाड़ा हो गया। ये वो चीज़ें थीं जिससे आम आदमी का वासता था। फिर आया मवेशियों का चारा घोटाला मामला। जो लगभग हज़ार करोड़ के घोटाले का मामला है। इस घोटाले ने लालू के राजनीतिक बसंत को एक तरह से समाप्त कर दिया। इस घोटाले ने एक राजनेता को एक सज़ायाफ्ता बना दिया। लालू को चुनाव लड़ने से क़ानून ने रोक दिया।

8 मई को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा झटका दिया है, चारा घोटाला मामले में लालू यादव पर अपराधिक साजिश का केस चलाने की अनुमति सर्वोच्च न्यायालय ने दे दी है। साथ ही 9 महीने के अंदर मामले को सलटाने की भी बात कही है।

इस फ़ैसले ने न सिर्फ़ बिहार की राजनीति को प्रभावित किया है, बल्कि पूरे देश की राजनीति को गर्म कर दिया है। एक तरफ़ नीतीश-लालू गठबंधन तो दूसरी तरफ़ 2019 के लिए महागठबंधन। विपक्ष का नीतीश पर दबाव तो बनेगा ही। अगर बिहार में नीतीश-लालू की जोड़ी टूटेगी तो कौन बनेगा नया जोड़ीदार ? ज़ाहिर है, बिना बताए ।

मगर फिर नीतीश के उस मीशन का क्या होगा, जिसके लिए नीतीश बिहार से बाहर क़दम रखना चाह रहे हैं? ज़ाहिर है नीतीश दुविधा में तो होंगे, पर लगता नहीं कि इस गठबंधन में फूट पड़ेगी। क्योंकि नीतीश की नज़र वहां ज़रूर होगी जहां 2019 में पहुंचा जा सकता है। और ये तभी संभव है, जब मौजूदा गठबंधन क़ायम रहे।

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