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15 अप्रैल 1917, ये वो ऐतिहासिक दिन था जब, गांधी जी ने बिहार से अपना पहला आंदोलन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ छेड़ा था। ये आंदोलन था चंपारण सत्याग्रह, जो कि किसानो के हित के लिए किया गया था। बिहार के चंपारण ज़िले में अंग्रेज़ों द्वारा किसानो का शोषण किया जा रहा था। उनसे ज़बरदस्ती सिर्फ़ नील की खेती करावाई जाती थी। वो ग़ुलाम भारत था, जिसे आज़ाद होने की उम्मीद थी। उस उम्मीद को गांधी जी ने मज़बूत किया और वो आंदोलन सफ़ल हुआ। गांधी जी ने हिन्दुस्तान में अहिंसा की ताक़त को मज़बूत किया, धीरे-धीरे अंग्रेज़ कमज़ोर पड़ते चले गए।
आज हिन्दुस्तान आज़ाद है, और देश का किसान आज़ाद हिन्दुस्तान में खेती कर रहा है। मगर ग़ुलाम भारत के किसान और आज़ाद हिन्दुस्तान के किसान में कितना फ़र्क़ हुआ? हम चंपारण आंदोलन के 100 वर्ष पूरे होने का जश्न तो मना रहे हैं, मगर जश्न का अस्ली सहभागी कौन है? क्या आज देश का किसान इस जश्न में शामिल है ? जो इस आंदोलन की सबसे बड़ी वजह रहा था?
सरकार चाहे जिस भी पार्टी की हो किसान की हालत वैसी ही रही है।
साल 2014, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्योरो की रिपोर्ट ने भारत में 5,650 किसानो द्वारा आत्महत्या की पुष्टि की है। बीते कुछ सालों की बात करें तो इस रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2004 में 18,241 किसानो ने आत्महत्याएं की। 2004 और 2014 वो साल है जिसमें देश में लगभग आधे साल तक एनडीए ने और आधे साल तक यूपीए ने शासन किया।
मतलब साफ़ है, देश में सराकारें चाहे कांग्रेस की रही हों या फिर बीजेपी की, किसान आत्महत्या करता ही रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि यूपी में, योगी सरकार द्वारा किसानों की क़र्ज़ माफ़ी इस दिशा में किया गया एक सराहनीय क़दम है। बशर्ते ये सिर्फ़ काग़जी या मीडिया हाईप न बन के रह जाए।
ख़ैर बात चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने की। ये एक उत्स्व की तरह मनाना अच्छी बात है, मगर इस उत्स्व में किसानो के हक़ और उनकी मांगों को अगर उठाया जाए तो वो बड़ी बात होगी।
आज किसान दिल्ली में आंदोलन कर रहा मगर उस आंदोलन की आवाज़ कमज़ोर पड़ रही है। ज़रूरत है इस उत्स्व में वैसे ही सत्याग्रह की जिससे किसानो की आवाज़ सरकार के कानो तक पहुंचे और चंपारण सत्याग्रह फिर से सफ़ल हो पाए एवं आज़ाद देश का किसान ‘आत्महत्या की ग़ुलामी’ से आज़ाद हो जाए।
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