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चुनाव की सियासत का जातिय पेंच !

हमसब की बात
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चुनाव का ‘ज़ात’ से सीधा संबंध है । हमारे देश की राजनीति कहीं न कहीं इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। कोई दलित का नेता है, कोई यादव का, कोई जाट का है, किसी ने हिन्दू का ठेका ले लिया है तो कोई मुसलमान का रहनुमा बनता फिर रहा है। चुनाव आते ही नेता अपने-अपने तथाकथित लोगों की फ़िक्र में डूब जाते हैं।

वोटों का ध्रविकरण तो आम बात है। चाहे गुजरात का दंगा हो या यूपी के आज़मगढ का। हर दंगा राजनीतिक लाभ के लिए चुनाव की भेंट चढ़ता आया है। हर बार दंगे से चुनाव में फ़ायदा उठाया गया है। दंगे में लोगों का मरना बस एक आंकड़ा भर है इनके लिए, असल मतलब इसको भंजाना है।

मगर ये भी सच है कि ये होता रहेगा। और तबतक होता रहेगा जबतक हम पार्टियों को इसलिए जिताते रहेंगे कि वो हमारी ज़ात का है, चाहे उसने सूबे या देश के लिए कुछ किया हो या नहीं।

पर ऐसा करना भी मजबूरी है, हो भी क्यूं न, क्योंकि हर तरफ़ नफ़रत की राजनीति है। मैं सिर्फ़ यूपी की बात नहीं कर रहा बल्कि पूरे उत्तर भारत की बात कर रहा हूं, इस मामले में दक्षिण भारत की राजनीति थोड़ी अलग ज़रूर है और शायद यही वजह भी है कि दक्षिण भारत, उत्तर भारत के मुक़ाबले ज्यादा विकसित है।

अगर मौजूदा वक्त की बात की जाए तो देश का माहौल बिगड़ता जा रहा। हिन्दूओं के बाद देश में सबसे अधिक आबादी मुसलमानों की है। यानी लगभग 20-21 प्रतिशत। अगर मुसलमान और हिन्दुओं के बीच ये नफ़रत की राजनीति बढ़ती है, तो नतीजा दोनो के हक़ में बुरा होगा। क्योंकि देश का विकास सबके साथ ही संभव है।

एक साथ समाज की कल्पना ही देश का भविष्य तय कर सकती है। ये भी हक़ीक़त है कि ज्यादातर हिन्दू और ज्यादातर मुसलमान एक दूसरे के दोस्त हैं। मगर कुछ लोगों और चंद पार्टियों ने इनके बीच तफ़रका पैदा किया है और आगे भी करेंगे। ज़रूरत है, हमारे दिमाग़ में बसे जातिय पेंच को ढीला करने की, और एक दूसरे का हाथ थामकर आगे बढ़ने की। समझदारी इसी में है कि टोकरी से सड़ा आम निकाल फेंका जाए, इससे पहले की पूरी टोकरी का आम सड़ जाए।

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