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इंसान की ज़िंदगी में सबसे ख़ुशी का दिन वो होता है, जब उसकी गोद में नर्स पहली बार उसके बच्चे को देती है…। बाप या मां बनने की ख़ुशी, शायद दुनियां की सबसे बड़ी ख़ुशी है…। जब बच्चा छोटा होता है, मां-बाप उसकी हर हरकत को हंसते हुए सहते हैं…। धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगते हैं… मां-बाप की उनसे उम्मीद स्वभाविक है…और हो भी क्यों न…?मां-बाप का नाम जो उसे एक दिन रौशन करना है…। मगर उम्मीद धीरे-धीरे अपना दायरा बढ़ाने लगती है…। जो सपना हम ख़ुद न पूरा कर सके हों वो अपने बच्चों के ज़रिए पुरा करवाना चाहने लगते हैं… हम ख़ुद की नाकामी को अपने बच्चों से कामयाब करवाना चाहते हैं और ये सपने हर हाल में पूरे हों ऐसा मनने लगते हैं…। यहीं से बच्चों के कंधों पर आ जाता है, मां-बाप के सपनों का भारी-भरकम बोझ और शुरू होता है कभी ख़त्म नहीं होने वाला मनोवैज्ञानिक दबाव….।
बच्चे की उम्र ढाई साल होते ही हमारी आंखों में उम्मीद की चमक शुरू हो जाती है…।बच्चे के लिए हम स्कूल तलाशने लगते हैं, भले ही उसका नाम प्ले स्कूल ही की क्यों न हो…। अपने ढाई साल के बच्चे को, जिसे हम डॉयपर पहनाते हैं, क्योंकि उसकी समझ इतनी भी नहीं, की वक्त पर बता सके कि उसे पॉट्टी आ रही है…।मगर उसकी पीठ पर हम सपनों का बोझ स्कूल बैग की शक्ल में चढ़ा देते हैं, जिससे वो बच्चे पूरी ज़िंदगी दबे रह जाते हैं…।
यही वजह है, कि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बच्चे ख़ुद को अंक तालिका में उलझा हुआ पाते हैं…। स्कूल की चाहे कोई भी परीक्षा हो, हमारी उम्मीद अपने बच्चों से 90 प्रतिशत से कम की होती ही नहीं…। ये उम्मीद हम अपने दिल में भी नहीं रखते बल्कि अपने बच्चों पे जताते भी हैं…। ज़ाहिर है, बच्चों पर इसका दबाव तो होगा ही…। स्कूल से निकले तो प्रतियोगिता का दौर शुरू… अभिभावक की उम्मीद और आला…। नतीजा बच्चों पर दबाव और अधिक, न सिर्फ़ ख़ुद के भविष्य को लेकर, बल्कि अपने मां-बाप की उम्मीदों की उड़ान देखकर…।
यही वजह है कि आजकल बच्चे इतनी तेज़ी से आत्महत्या कर रहे हैं…। जब उन्हें लगता है कि वो अपने गार्जियन की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे, अगर लगा कि परीक्षा का परिणाम बेहतर नहीं होगा, वो आत्महत्या कर रहे हैं….।
हाल के कुछ सालों से लोग अपने बच्चों को मेडिकल या इंजिनीयरिंग की बेहतर तैय्यारी के लिए, कोटा (राजस्थान) धड़ल्ले से भेज रहे हैं…। बच्चों के साथ अपनी उम्मीदों को भी उनके किताबों के थैलों और उनके दिमाग़ में ठूंस देते हैं…। मुझे तुमसे ये उम्मीद है, वो उम्मीद है… न जाने क्या-क्या उम्मीदे हैं…। 16-17 साल का बच्चा जब ख़ुद से लिपटी इतनी उम्मीदों को देखता है तो वो उस उलझन मेंउलझ जाता है और बाहर नहीं आ पाता…। तब शुरू होता है उसके दिमाग़ में दबाव का बढ़ना…। घर वालों की उम्मीद के क़िले को जब वो देखता है, और उसे लगता है कि उसकी बनाई इमारत उस क़िले के मुक़ाबले कुछ भी नहीं, तब वो कोई और रास्ता तालाशता है… यही वो रास्ता है, जब बच्चे ख़ुद अपने मुंह से ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते की…. पापा या मम्मी मुझसे आपके सपनों का क़िला नहीं बन पा रहा है… बल्कि वो ख़ुद को डरा हुआ महसूसकरते हैं और अपनी ज़िंदगी से हार जाते हैं…।
‘हम हमेशा आपके साथ रहेंगे, छोटू को बोलिएगा खूब पढ़ेगा, बहुत आगे जाएगा.बिना किसी टेंशन के छोटू पढ़ना, हम हमेशा तुम लोग के साथ रहेंगे. बहुत याद करेंगे तुमको, पढ़ना मेरे भाई,माफ़ कर देना मेरे मम्मी पापा.’ ज़िंदगी की ये आख़री पंक्तियां हैं, अमन गुप्ता की…। अमन बिहार का रहने वाला था और एक साल से कोटा में मेडिकल की तैय्यारी कर रहा था… मरने से पहले उसने एक वीडियो रिकॉर्ड किया और उपर लिखी बात उसमें कही…। और कहा कि वो अपने माता-पिता के सपने पूरे करने के लायक नहीं…।
सिर्फ़ कोटा की बात करें तो, 2016 में यहां आत्महत्या करने वाला दसवां छात्र था अमन, 2015 में 19 छात्रों ने कोटा में आत्महत्या किया…। पिछले पांच सालों में यहां लगभग 70 छात्रों ने आत्महत्या किया है…।
National Crime Research Bureau के मुताबिक़ 2016 जनवरी-फ़रवरी में लगभग 35 छात्रों ने भारत में आत्महत्या किया…। भारत में कुल आत्महत्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा छात्रों का होता है, जो ये परीक्षा के परिणामों के डर से करते हैं…।
ज़ाहिर है जिनके बच्चे आत्महत्या करते होंगे उस मां-बाप के लिए उससे बड़ा दुख कोई और नहीं होता होगा…। मगर एक तरह से वे ही उस मौत के ज़िम्मेदार भी होते हैं…। उनकी ज़रूरत से ज्यादा हसरतें और उम्र और क्षमता से ज्यादा उम्मीदों का बोझ, जब माता-पिता अपने बच्चों पे डाल देते हैं, तो कुछ बच्चे उसमें इतने दब जाते हैं कि फिर उनके क़दम ज़िंदगी नहीं बल्कि आत्महत्या की डगर पर लिये चले जाते हैं…।
बच्चों से उम्मीद करना मां-बाप का हक़ है, मगर हमें ये ध्यान ज़रूर रखना चाहिए कि हमारे बच्चों पर हमारी ये उम्मीद उनकी ज़िंदगी से नाउम्मीदी की वजह न बन जाए…।
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